बुधवार, 15 जून 2011

त्रैमासिक 'गुफ्तगू' :- जून २०११

अंक -              अप्रैल-जून 2011
स्वरूप -            त्रैमासिक
संपादक -          नाजिया गाजी
मूल्य -             (10 रू प्रति) (वार्षिक 40 रू.)(आजीवन-1500 रु.)
फोन/मोबाईल:    ९८८९३१६७९०,९८३९९४२००५
ई मेल -            guftgu007@rediffmail.com
वेबसाईट          
http://guftgu-allahabad.blogspot.com
पत्राचार :         
१२३ ए /१, हर्वारा, धूमनगंज, इलाहाबाद-२११०११


ग़ज़ल विधा को समर्पित पत्रिकाओं में 'गुफ़्तगू' त्रैमासिक पत्रिका का अच्छा स्थान है

सम्पादकीय
सम्पादकीय में नाजिया गाजी ने कवि सम्मेलनों के मंचों पर दिनों दिन हास्य कलाकारों की मौजूदगी और बढती फूहडता पर प्रश्न उठाया है| लेख में पूरी तरह से ठीकरा कवियों/शायरों पर मढने की बजाय इस पर और भी गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता थी|

गज़लें  

खास ग़ज़लें स्तंभ में अकबर इलाहाबादी, फ़िराक गोरखपुरी, मज़रूह सुल्तानपुरी और दुष्यंत कुमार की गज़लें हैं| निश्चय ही चरों गज़लें बेहतरीन हैं और पठनीय हैं| बड़े शायरों की ग़ज़लों के प्रकाशन में प्रूफ रीडिंग का विशेष ध्यान रखना चाहिए, ऐसा लगता है कहीं कहीं गलतियां छूट गई हैं|


अगली गज़ल मुनव्वर राना साहब की है जिनका नाम ही काफी है ..एक शेर देखिये 

हमको मालूम है शोहरत की बुलंदी हमने,
कब्र की मिटटी को देखा है बराबर होना 

इब्राहिम अश्क की गज़ल में बेशक अरूज़ की दृष्टि से कई खामियां है परन्तु उत्तम कथ्य के कारण अपना प्रभाव छोड़ने में सक्षम है| 

अतीक इलाहाबादी की गज़ल शिल्प और कथ्य दोनों पर खरी उतरती हुई आज के दौर की नब्ज़ पकडती हुई दिखती है..एक शेर देखिये 
यारों ने साथ छोड के रस्ते बदल लिए
जब पास अपने एक भी पैसा नहीं रहा

मनोहर विजय की गज़ल भी बेहतरीन है, एक शेर देखिये
खोटे सिक्के को हिकारत से न देखो यारों
खोटा सिका ही सही काम भी आ जाता है 

वाकिफ  अन्सारी की गज़ल का शेर देखिये


उसकी नज़रों से यूँ टकरा गयीं नज़रें मेरी
जैसे 'वाकिफ' कोई तलवार पे तलवार गिरे


आचार्य भगवत दुबे, डा० लोक सेतिया, वृन्दावन राय सरल, डा० दरवेश भारती, केशव शरण. डा० ऋषिपाल धीमान, ए० एफ़० नज़र, देवेश देव, अजय अज्ञात, नरेश निसार, शम्मी शम्स वारसी, किशन स्वरुप, सजीवन मयंक, इरशाद अहमद, शिबली सना, सहर बहेडवी, हुमा अक्सीर, सिबतैन परवाना, डा० वारिस अंसारी और अखिलेश निगम अखिल की गज़लें भी इस अंक की शोभा बढ़ा रही हैं|


कवितायें

कैलाश गौतम का नवगीत "मन का वृन्दावन होना" एक उत्कृष्ट नवगीत का उदाहरण है|


अवनीश सिंह चौहान का नवगीत भी मानकों पर खरा उतरता है|


दोनों नवगीतों को मुखड़े और अंतरे में ना बांटने के कारण पढने में कठिनाई होती है| इस विषय पर सम्पादकीय दृष्टि की आवश्यकता है|

जाल अंसारी कि कविता "चाँद सा चेहरा" नए बिम्बों से सुसज्जित है और मन के अंदर गहरे तक उतरती है|



इसके अतिरिक्त रुबीना, जसप्रीत कौर जस्सी, अंजलि राना, विमल कुमार वर्मा और आकांक्षा यादव की कविताय्रें भी हैं|


तआरुफ़ 
डा० अलका प्रकाश की तीन कवितायें हैं| तीनों कवितायें स्त्री के अंतर्मन की व्यथा का सीधा सीधा रूपान्तर हैं बस केवल समय और किरदार बदल दिए गए हैं दीगर बात यह है कि कवियित्री इस कार्य में पूरी तरह सफल है| 


इंटरव्यू
एहतराम इस्लाम से जयकृष्ण राय तुषार की बातचीत में हिंदी-उर्दू  और आज की गज़ल पर एहतराम साहब ने बेबाकी से जवाब दिया है| एक पठनीय साक्षात्कार|


विशेष लेख
मुनव्वर राना का विशेष लेख "हम अपने गाँव की गलियों में सावन छोड़ आये हैं" मूलतः एक भावनात्मक लेख है और पढ़ने के बाद सुकून देने वाला है|


चौपाल
इस बार का विषय है "साहित्यिक पुस्तकों का मूल्य इतना अधिक क्यों", जिसमे बेकल उत्साही, वसीम बरेलवी, बुद्धिनाथ मिश्र, अनवर जलालपुरी और नवाब शाहाबादी के रोचक जवाब शामिल हैं|

कहानी


हेमला श्रीवास्तव की कहानी "खामोश रिश्ता" एक परिवार के बिखराव की कहानी है जिसमे एक नीम के पेड़ को गवाह बनाया गया है| काहानी शिल्प के पहलू में थोड़ी कसावट की मांग करती है| भविष्य में लेखिका से और भी अच्छी कहानियों की उम्मीद है|

परिशिष्ट


डा० कृष्ण भूषण श्रीवास्तव और डा० सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव की प्रतिनिधि कवितायें हैं|


इन सबके अतिरिक्त डा० ज़मीर अहसन की तीन गज़लो को भी स्थान दिया गया है| तीनो गज़लें रिवायती ग़ज़लों का एक शानदार नमूना है|

गुरुवार, 2 जून 2011

समीक्षा - पाखी, मई २०११

अंक -              मई 2011
स्वरूप -            मासिक
संपादक -          प्रेम भारद्वाज
मूल्य -             (20 रू प्रति) (वार्षिक 240 रू.)
फोन/मोबाईल:    0120- 4070300, 4070398
ई मेल -            pakhi@pakhi.in
वेबसाईट           http://www.pakhi.in
पत्राचार :          
इंडिपेडेंट मीडिया इनिशियेटिव सोसायटी, बी 107, सेक्टर 63, नोएड़ा,
 201303 उ.प्र.


प्रतिष्ठित पत्रिका 'पाखी' का यह विशेषांक विविध रचनाओं तथा अन्य रोचक स्तंभों  सुसज्जित है 


पाँच कहानियाँ 
कोसे का साफा, दुधारी छूरी (अब्दुल बिस्मिल्ल्ह) कहानी व्यूह रचना करते हुए आगे बढती है और कुछ यक्ष प्रश्नों के साथ समाप्त होती है, लेखक कि अपनी शैली है जो काबिले तारीफ़ भी है और यह आशा भी की जा सकती है कि भविष्य में इसमें और निखार आएगा| 
पाँव में पहिये वाली लड़की (संतोष दीक्षित) कहानी में विषय का बखूबी निर्वहन किया गया है, लेखक बधाई का पात्र है| कहानी, मुख्य पात्र पुनिया की है जो पुनिया से पूर्णिमा बनने की जद्दोजहद में सामाजिक संघर्ष को एक विराम दिला देती है| पूर्णिमा बनने का सफर शुरू हो चुका है, एक अंश देखें -
                                      "जितनी मुँह उतनी बातें। लड़के पफब्तियां कसते। अंड बंड बकते। लेकिन कोई पफर्क नहीं पड़ता पुनिया को। चाय दुकान का उसका अनुभव इस बुरे वक्त में उसके खूब काम आता। वह अपना काम निबटाती और पिफर अपनी किताबों में खो जाती। वैसे भी इन सड़क छाप मजनुओं के साथ न उसका कोई भविष्य था न ही उसका कोई सपना इनके भविष्य के साथ मेल खाता था। जो वह आगे बढ़ती  ही... लगातार... अपनी सायकिल की रफ्तार से..."
कहानी अवश्य पढ़े|
'वह चेहरा' (रूप सिंह चंदेल) जिंदगी के पासे में हमेशा ६ लाने की जुगत करने वालों को १ और २ का महत्त्व भी मालूम होना चाहिए, अपनी जीवन उपलब्धि को एक खास इंसान  से साझा करने की ख्वाहिश को मन में लिए जी रहे व्यक्ति की  कहानी है पात्र, खंडहर हो चुके सामाजिक नैतिकता के भवन पर छत डालने की असफल कोशिश करता है परन्तु परिणाम वही 'ढाक के तीन पात'|
कैलाश वानखेडे की कहानी 'तुम लोग' का शिल्प ज़रा हैरान करता है, हजारों भाव जो पल पल बदल रहे हैं सबको तारतम्यता से प्रस्तुत कर देना सरल नहीं है, इन् हजारों ख्यालात के साथ साथ कहानी अपनी रफ़्तार से आगे बढ़ती रहती है यह भी लेखक की कुशलता का प्रतीक है जो सुन्दर भी है|
बदलाव (शरद उपाध्याय) समय के बदलाव, परिवेश के बदलाव और सोच के बदलाव की कहानी है और इन् सबसे ज्यादा खुद के बदलाव की कहानी है|


 दो लघुकथा 
गर्व (पंकज शर्मा) का कथ्य औसत है, परन्तु लघु कथा अपने शीर्षक को संप्रेषित कर पाने में असफल है| मर्दानगी (अशोक गुजराती), यदि लघु कथा का पहला बड़ा पैराग्राफ हटा दिया जाए तो लघुकथा सटीक और मारक है, एक बड़ा पैराग्राफ जो लघुकथा के लिहाज से बिलकुल फिजूल है, लघु कथा की सार्थकता को खत्म कर दे रहा है 


कविता, ग़ज़ल 
प्रस्तुत अंक में पाँच कवियों की कविता प्रकाशित की गई है (अजित कुमार, प्रत्यक्षा, मंजू मल्लिक मन्नु, नमिता सत्येन, विनीता जोशी 'वीनू') कविताएं स्तरीय हैं कवियों के साथ साथ संपादक मण्डल भी प्रशंसा के पात्र हैं 
कुमार नयन की तीन ग़ज़लें प्रकाशित की गई हैं, पहली व दूसरी ग़ज़ल बाबह्र है तथा कहन भी अच्छी है, ग़ज़लकार को बधाई| तीसरी ग़ज़ल ने निराश किया, ७ शेरों की इस ग़ज़ल में तीसरे शेर को छोड़ कर हर शेर बेबह्र है तथा  कथ्य में भी बिखराव है| यह सम्पादकीय कुशलता पर भी प्रश्न चिन्ह है
स्मृति शेष 
 इस स्तंभ में राजेन्द्र लहरिया और अरविन्द श्रीवास्तव ने 'कमला प्रसाद जी' को याद किया है व श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं, उमा शंकर चौधरी ने कविता के माध्यम से कमला जी को याद किया है, एक अंश प्रस्तुत है " तुम चले गए 
 तुम्हारी आवाज़ चली गई 
लेकिन तुम्हारा दिया नजरिया बहुत याद आएगा 
 इस दुनिया और इस दुनिया के लोगों को 
 प्यार करने की तुम्हारी चाहत बहुत याद आयेगी 
याद आयेगी -
 तुम्हारा दुःख, तुम्हारी हंसी, तुम्हारी आश्वस्ति 
 तुम्हारी आवाज,
 तुम्हारा मिलना 
 और कुल मिला कर 
पूरे के पूरे तुम "


अनन्त ने 'रेणु की लतिका' लेख से कथाकार 'रेणु' की धर्मपत्नी 'लतिका जी' को याद किया है व श्रद्धा सुमन अर्पित किये हैं 


अन्य
 पत्रिका में अन्य स्थाई स्तंभ भी रोचक व पठनीय हैं तथा अंक संग्रहणीय है 

प्रस्तुत समीक्षित अंक को आप पाखी की वेबसाईट पर भी (यहाँ क्लिक करकेपढ़ सकते हैं  


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